Puran Kitne Hai – जानिए सभी पुराणों का सक्षिप्त वर्णन
पुरा शब्द का अर्थ है- अतीत या अनागत, अण शब्द का अर्थ है कहना अर्थात जो प्राचीन व अनागत बातों को समझाए, वही पुराण है।
प्राचीन काल से जीवंत और प्रवाहमान होने के कारण इसे पुराण कहा गया है।
वेद अनादि या अपौरुषेय है। पुराण पौरुषेय और अपौरुषेय दो प्रकार के भेदों से युक्त है। ब्रम्हा जी ने जिस पुराण की रचना की वह केवल एक अपौरुषेय पुराण था और उसमें सौ करोड़ श्लोक थे, परन्तु उस एक पुराण की विशालता व विशदता को सरल एवं सर्वजन ग्राही बनाने के लिए व्यास जी ने उसका विभाजन करके उसमें 18 खंड कर दिए तथा श्लोकों की संख्या चार लाख सीमित कर दी जो पौरुषेय पुराण के नाम से प्रसिद्द हुए, यह पौरुषेय पुराण वेद के परवर्ती काल की रचना है।
पुराणों और वेदों में एक विशेष अंतर यह है कि ब्रम्हा जी के मुख से प्रकट होने पर भी वैदिक मन्त्रों का दृष्टा ऋषियों को कहा गया जबकि पौराणिक ज्ञान धारा को ग्रहण करने वाले मुनि कहलाए। वैदिक ज्ञान धारा, यज्ञ व कर्मकांडीय संस्कृतियों का वहन ऋषि कुल परम्परा ने किया जबकि पौराणिक ज्ञान के अंतर्गत लौकिक व्रत, उपासना, तीर्थ व अनुष्ठान संस्कृति के वाहक मुनि बने।
ऋषि दृष्टा है व मुनि प्रवक्ता है।
भारतीय जीवन शैली विशाल है पर दुर्गम नहीं। मौलिक है और कृत्रिमता से दूर भी। अतीत से जुड़ी है वह पुरातन के प्रति विद्रोह की भावना नहीं देती। अभिनव का अनुसंधान करती है परन्तु प्राचीन परम्परों की अवमानना करके नहीं, अपितु उनके अनदेखे सपनों की लालसा पूर्ण करने के लिए। वेदों की शैली रूपकमयी है, पुराणों की शैली अतिश्योक्तिमयी है, अर्थात वेदों में जो बात सूत्र रूप में कही गयी है वही पुराणों में विस्तार से वर्णित है।
पूरणात् पुराणम् अर्थात जो वेदों के अर्थ का पूरण करता है या उस अर्थ को पूर्णता प्रदान करता है वही ग्रंथ पुराण कहलाता है। वस्तुतः पुराण वेदों के व्याख्यान ग्रंथ हैं।
पुराणों में वर्णित विषय वस्तु के बारे में "पंचलक्षण" शब्द प्राचीनकाल से ही पुराणों की मर्यादा के रूप में सर्वमान्य है। यह पाँच वर्णनीय विषय प्रत्येक पुराण में उपलब्ध हैं। क्रमानुसार यह पांच विषय हैं सर्ग, प्रतिसर्ग, वंश, मन्वन्तर, और वंशानुचरित।
1) सर्ग- यह सम्पूर्ण दृश्य जगत एवं उसके नाना प्रकार के जीवों व पदार्थों की उत्पत्ति की प्रक्रिया व क्रम का वर्णन "सर्ग" कहलाता है। सृष्टि का प्रारंभ या सृजन की प्रक्रिया का परमात्मा या ब्रम्ह से प्रस्फुटन सर्ग का वर्ण्य विषय है।
2) प्रतिसर्ग- सर्ग का विपरीत अर्थात सृजन की विपरीत प्रक्रिया है प्रलय। कल्प के अंत में या पौराणिक काल गणना के अनुसार ब्रम्हा जी का एक दिन पूर्ण हो जाने पर सृष्टि का समापन या प्रलय ही प्रतिसर्ग का वर्ण्य विषय है।
3) वंश- ब्रम्हा जी द्वारा रचित इस सृष्टि में जितने राज्य हुए हैं उनकी भूत, भविष्य, व वर्तमान संतान, परंपरा को ही वंश की संज्ञा दी गई है। यहां वंश का तात्पर्य केवल राजा वंश से ही नहीं अपितु ऋषियों, सुरों व असुरों की वंश परम्परा से भी है।
4) मन्वन्तर- मन्वन्तर शब्द से वस्तुतः पौराणिक सृष्टि क्रम की काल गणना का बोध होता है। चारों युगों, सतयुग, त्रेता, द्वापर व कलियुग को मिलाकर एक चतुर्युगी बनती है और एक हजार चतुर्युगी में चौदह मन्वन्तर होते हैं।
5) वंशानुचरित - राजवंशों के चरित्रों का वर्णन व उनका विशिष्ट विवरण ही वंशानुचरित कहलाता है यद्यपि देवताओं, ऋषियों व कीर्तीवान अभितेज सम्पन्न राजाओं का इन वंशानुचरिता में वर्णन है परंतु अन्य की अपेक्षा राजाओं के चरित्र का ही विशेष विवरण पुराणों में उपलब्ध है।
पुराणों की संख्या प्राचीन काल से ही निश्चित तथा विवाद रहित है। विष्णु पुराण तथा श्रीमद्भगवत पुराण आदि पुराणों में पुराण का निर्देश एक विशिष्ट क्रम के अनुसार है और यही क्रम तथा नाम अन्य पुराणों में भी उपलब्ध है।
- ब्रम्ह पुराण
- पद्म पुराण
- विष्णु पुराण
- शिव पुराण
- श्रीमद्भगवत पुराण
- नारद पुराण
- मार्कण्डेय पुराण
- अग्नि पुराण
- भविष्य पुराण
- ब्रम्ह वैवर्त पुराण
- लिंग पुराण
- वाराह पुराण
- स्कन्द पुराण
- वामन पुराण
- कूर्म पुराण
- मत्स्य पुराण
- गरुड़ पुराण
- ब्रम्हाण्ड पुराण
- इस प्रकार पुराणों की संख्या 18 है। पुराणों की संख्या 18 ही क्यों निर्धारित की गई इसके पीछे भी भारतीय मनीष की आध्यात्मिक व दार्शनिक मेधा की अभिव्यक्ति होती है। शतपथ ब्राम्हण में सृष्टि नामक अठारह (17+1) इष्टिकाओं का प्रावधान है। ऋग्वेद में गायत्री और विराट छंद की बहुलता व प्रमुखता है तथा गायत्री के आठ तथा विराट के दस अक्षर मिलाकर 18 की संख्या बनाते हैं। बारह मास, 5 ऋतुएं व एक संवत्सर मिलकर काल के 18 भेदों को प्रकट करते हैं।
भारत समन्वय परिवार का यह प्रयास है कि हम अपनी सांस्कृतिक धरोहर पुराणों में निहित ज्ञान से जन जन को अवगत करायें और इस शाश्वत ज्ञान को जन मानस के लिए अधिक सहज, सुलभ, और जीवनोपयोगी बनाने में सहायक हों।